Heritage Sites

ज़फर महल,दिल्ली, हिंदुस्तान में आखरी मुग़ल ईमारत .

ज़फर महल,दिल्ली, हिंदुस्तान में आखरी मुग़ल ईमारत . कितना है बद नसीब ज़फ़र दफ्न के लिए दो गज़ जमीं भी न मिली कू ए यार में यह शेर बहादुर शाह ज़फर ने अपने आखरी वक़्त में कहे, एक हसरत, एक ख्वाहिश एक तम्मन्ना - दो गज़ ज़मीन के लिए . मेहरौली की तंग गलियों के बीच मौजूद यह संरचना है ज़फर महल. ज़फर महल हिंदुस्तान में आखरी मुग़ल ईमारत है . हालाँकि ज़फर का अर्थ होता है जीत लेकिन यह महल प्रतिबिम्ब बन गया एक हार का. तीन मंज़िला ज़फर महल को पहली बार अकबर शाह द्वार 18वि सदी में बनवाया गया था . वीरान पड़ी यह ईमारत अपने वक़्त में निहायत ही खूबसूरत हुआ करती थी . इस महल के मुख्य दो हिस्से हैं . पहला अंदर का महल और दूसरा प्रवेश द्वार जिसे बहादुर शाह ज़फर ने दोबारा बनवाया था और इसे अपना नाम दिया था ज़फर . इस विशाल दरवाज़े को हाथी दरवाज़ा भी कहा जाता है, क्योंकि यह ख़ास तौर पर हाथियों के गुजरने के लिए बनाये गए थे जिस पर बादशाह अपनी शान ओ शौकत से चलते थे . आज भी यह दरवाज़ा उस भव्यता को बयान करता है . इतिहास कहता है कि यह महल बहादुर शाह ज़फर ने गर्मिया बिताने के लिए बनवाया था . इतने अरमानो से बनाये गए इस महल में यक़ीनन खूब रौनक होती होगी लेकिन आज इस की वीरानगी देख कर इस की हालत पर रहम आता है . दीवारें गिर रहीं है, जगह जगह से छत ढहने को है, चारों तरफ आस पास का कूड़ा है . मिर्ज़ा अबु ज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद जो अपने शायराना नाम बहादु शाह ज़फर के नाम से जाने गए , मुग़ल सल्तनत के 20 वे और आखरी सुल्तान हुए .28 सितम्बर 1837 को अपने पिता अकबर शाह 2 के अंग्रेज़ों द्वारा क़ैद किये जाने के बाद बहादुर शाह ज़फर सुलतान बने , लेकिन बस नाम के सुलतान . मुग़ल सल्तनत पहले से ही अपने पतन की तरफ और जब बहुदर शाह ज़फ़र सुल्तान बने तो उनके अधीन केवल दिल्ली शहर ही था बाकी सब पर ईस्ट इण्डिया कंपनी का कब्ज़ा हो चुका था . हालाँकि न तो बहादुर शाह ज़फर न ही उनके पिता चाहते थे कि ज़फ़र दिल्ली के सुल्तान बने, बल्कि अकबर शाह द्वितीय अपने दुसरे बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को सुलतान बनान चाहते थे . लेकिन कहा जाता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी दिल्ली में एक कमज़ोर सुल्तान चाहती थी इसी लिए उन्होंने मिर्ज़ा जहाँगीर को भी क़ैद कर लिया और आखिरकार बहादुर शाह ज़फर को ही दिल्ली की गद्दी पर बैठना पड़ा 1837 से 1857 तक बहादुर शाह की ज़िन्दगी में सब कुछ सामान्य था . एक डूबती हुई सल्तनत के सुलतान के तौर पर ज़िन्दगी कुछ ख़ास नहीं थी तो कुछ खराब भी नहीं था . फिर साल आया 1857 जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ पहली बग़ावत हुई . लखनऊ , कलकत्ता, झाँसी , मेरठ वगैरह से क्रांतिकरियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था . क्रन्तिकारी इस क्रांति का नेता बहादुर शाह ज़फर को बनाने चाहते थे , क्रांतिकारियों ने उन्हें भारत का बादशाह घोषित कर दिया और दिल्ली की तरफ उन्हें समर्थन देने चल पड़े. बहादुर शाह ज़फर हालाँकि क्रांति के नेता बनने में दिलचस्पी नहीं रखते थे लेकिन उनके सामने कोई दूसरा ऑप्शन भी नहीं था, और यही फैसला बहादुर शाह ज़फर और मुग़ल सल्तनत का आखरी क़दम साबित हुआ दुर्भाग्यवश अंग्रेज़ों ने क्रांति पर काबू पा लिया और बारी बार क्रांतिकारियों को सजा देनी शुरू की . बग़ावत भड़काने के इलज़ाम में अंग्रेज़ों ने बहादु शाह ज़फर को देश निकला दे दिया और दिल्ली से 3500 किलोमीटर दूर बर्मा के रंगून भेज दिया . अपनी हार पर बहादुर शाह ज़फर ने एक ऐतिहासिक शेर कहा जो अमर हो गया ग़ाज़ीयों में बू रहेग जब तलाक ईमान की तख़्त इ लन्दन तक चलेगी तेग़ हिंदुस्तान की अक्टूबर 1862 में रंगून जेल में कथित तौर पर उन्हें एक बीमारी हो गई। जिसकी वजह से उन्हें खाने पीने में दिक्कत होने लगी और आखिरकार 7 नवंबर 1862 को सुबह 5 बजे जफर की मृत्यु हो गई। अँगरेज़ अफसरों ने बहादुर शाह ज़फर को उनके क़ैद खाने के पीछे ही दफनाया और उनकी क़ब्र को सपाट रखा ताकि कोई पहचान न सके . 16 फरवरी 1991 को 139 साल बाद उनकी कब्र मिली जहाँ पर आज उनकी मज़ार बनायीं गयी है . बहादुर शाह ज़फर अपना आखिर इस तरह नहीं चाहते थे बल्कि वो तो चाहते थे कि वह अपने परिवार वालों के साथ ज़फर महल में दफ़नायें जाए. अपनी क़ब्र के लिए ख़ास दो गज़ की ज़मीन उन्हने छुड़वाई थी जो आज भी खाली ही पड़ी है . यहाँ दफन होने की ख्वाहिश में ही बहादुर शाह ज़फर ने यह मशहूर शेर कहा थे कितना है बद नसीब ज़फ़र दफ्न के लिए दो गज़ जमीं भी न मिली कू ए यार में ज़फर महल की संरचना की बात करें तो, अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में बहादुर शाह ज़फ़र ने मौजूदा प्रवेश द्वार बनाया था। इसके मेहराब में मुगल शैली में एक विस्तृत छज्जा घुमावदार बंगाली गुंबदों से घिरी छोटी उभरी हुई खिड़कियां और दोनों तरफ बड़े कमल के रूप में अलंकृत पदक हैं। प्रवेश द्वार हाथियों के गुजरने के मद्देनज़र बनाया गया था . महल के बीच में एक गुम्बदनुमा संरचना है जो तुग़लक़ शैली में बनी हुई है . कोई प्रामाणिक दस्तावेज़ न मौजूद होने के कारण इसका असल विवरण हमें नहीं मिलता . ऊपरी मंज़िल पर एक कमरा मौजूद है जिसमे बहुत से मेहराब व दर हैं . आज भी देखने में यह काफी खूबसूरत और आकर्षक है .यह हिस्सा हाथी दरवाज़े के ऊपर मौजूद है . बताया जाता है कि बहादुर शाह ज़फर हर साल मानसून के मौसम में शिकार के लिए इस महल में आते थे और फरवरी/मार्च में आयोजित फूल वालों की सैर उत्सव के दौरान उन्हें यहां सम्मानित किया जाता था। ज़फर महल एक समय कई संरचनाओं वाला एक विशाल परिसर था, लेकिन इनमे से ज़्यादत खो गए हैया अतिक्रमण का शकार हो गए हैं . इनमें औरंगजेब की बावली,मिर्ज़ा बाबर का घर ,बहादुर शाह जफर का दीवान-ए-खास, मिर्ज़ा नीली का घर, मिर्ज़ा सलीम का घर, बहादुर शाह जफर का थाना वगैहर शामिल थे . महल परिसर के आखिर में ख्वाजा बख्तियारुद्दीन काकी की दरगाह से लगी हुई एक मस्जिद है जिसे मोती मस्जिद कहते हैं .यह शाही परिवार के लिए एक निजी मस्जिद थी , जिसे बहादुर शाह प्रथम द्वारा बनवाया गया था। बाद में इसे महल परिसर में शामिल कर लिया गया। सफ़ेद संग मर्मर से बानी यह छोटी तीन गुंबद वाली संरचना इस महल में मौजूद सबसे सुरक्षित हिस्सा है मस्जिद के बराबर में ही संग मर्मर से ही बना हुआ एक छोटा सा क़ब्रिस्तान है जहाँ बहादुर शाह प्रथम, शाह आलम द्वितीय समेत कई मुग़लों की क़ब्रें हैं । अपने अजदाद के पास ही बहादुर शाह ज़फर दफन होना चाहते थे प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम, 1904 के तहत 1920 में इसे एक संरक्षित स्मारक घोषित किया गया था । इसकी "संरक्षित स्मारक" स्थिति के बावजूद, लापरवाही के कारण बर्बरता और अतिक्रमण की घटनाएं आम है इतिहास बड़ा विचित्र है . बहुत अजीब अजीब कहानिया देखने को मिलती है . अरमानों से बना एक महल, सल्तनत का शहंशाह , 350 साल का मुग़लिया परंपरा का वारिस अपने लिए दो गज़ ज़मीन हासिल न कर सका .

What's Your Reaction?

like
0
dislike
0
love
0
funny
0
angry
0
sad
0
wow
0